Saturday, December 31, 2011

अजमाना चाहता था


 मेरी आँखें भींगी थी, उसकी आँखें भी भिगाना चाहता था
तड़फ में झुलस रहा था मैं, उसको भी रुलाना चाहता था
बस एक ही बात उढ़ी जेहन में, क्या वो भी मुझे इतना चाहती है?
मैं तप गया था चंद विरह में, क्या वो भी? अजमाना चाहता था

अपने को उससे अलग किया , झूठमूठ, अजमाना जो था
हर बात पे उनकी, गुस्सा मेरा, झूठमूठ, सताना जो था
सकपका कर वो, रह गयी थी उस रोज
अब तो मेरी हर बात सही, शायद झूठमूठ, मनाना जो था

मैंने दर्द तो बहुत दिए, पर वो उनको छुपा लिए
मैंने जख्म तो बहुत किये, पर वो भी सिला लिए
हर बात पे आग लगायी, मैंने बस उनके लिए
पर! वो हर आहत पे, राहत से मुस्करा लिए

भूलाये ख्वाब सारे उनसे, उन्होंने अपने सब बना लिए
मिटाए हर पल संग के, हर क्षण उन्होंने सजा लिए
हर याद उनकी मैंने, स्वप्न में दफ़न कर दी
पर अब नींद भी, स्वप्न भी, गायब! और रातें, घुट घुट कर जिए

सजा देना चाहा उन्हें, खुद सजा मिल गयी
हृदय के भावुक भाग में, मूर्त उनकी जम गयी
बार बार अपने को ही कोसता रहा मैं, सारा समय
वो आयी, बंद होंठ थे, दिल को छूकर गयी

उनके चेहरे की भाव भंगनाएं, मुझको दुःख दे रही थी
उनकी बिन कही आवाज, मुझे सुनाई दे रही थी
वो मुड़ी, वापस आई, सीने से लग रो गयी
'आज़ाद' मेरी अजमाइश के जबाब, उसके हृदय की धड़कन दे रही थी  

Monday, December 19, 2011

अन्तःद्वंद

ये कैसी उहापोह मेरे अन्तः में
क्यों इसके आगे मैं झुक जाऊ
क्यों बदल रही है पवन रास्ते
क्या मैं धूल आंधियो से रुक जाऊ

क्यों डूब रहा बीते अतीत में
कैसे उन कष्टों से मैं मुकर जाऊ
ऐ दुनिया दे इतनी नुफरत मुझे
कि मैं काँटों से भी गुजर जाऊ

जो थम गया वक्त के कदमो में
उस कायर को क्या नाम दू
जो गिर गिर के चलता रहे
उसे हृदय का स्नेह वार दू

जो थमे नहीं चट्टानों से भी 
उन्हें जीवन की हर हंसी बहार दू
ऐ ज़माना, रो इस कदर तू
मैं विपत्तियों को हटा, नया संसार दू
................................................

जब पीड़ा से सना सागर भी
लहरों को किनारों पे धोता है
बढ़ रहा नीर उसके अन्शुओ से
जब आप आप ही रोता है

कैसा दुःख कैसी मुसीबत
जिस चिर वेदना में तू खोता है
भूल जा जो हुआ होने वाला
ये जग तो स्वार्थ का झरोंता है

बढ़ता रह मुसाफिर आगे
परवाह न कर दुनिया की ज़रा
जो छूट जाये अपने भी तो  क्या
जा उस ओर जहाँ पौरुष भरा

वो कदम तुझको रोकेंगे नहीं
भर देंगे वीरत्व ना अफ़सोस ज़रा
खुद में डूब जा इतना ओ राही
ना सुन क्या बुरा क्या खरा
....................................................
झड़ते है आंसू  किसी की आँखों से
तो दिल मेरा क्यों रोता है
गरीब बेसहारो का खा खा कर
कोई सुख  से महलों में सोता है

ये उसकी किस्मत ये मेरी है
दिन रात इसी में क्यों खोता है
उठ चल भर कर नैनो में रुधिर
क्या तेरे तन कुछ ना होता है

जब चाहता गुलामी करना तू
क्यों आजादी का नारा लगाता है
क्यों भूल रहा तू स्वम में है
बेवक्त वेबुनियाद जब चिल्लाता है

चींख चींख कर गला रुंध गया
भुजाओ को क्यों नहीं अजमाता है
खोल ले सीने के हर जख्म को
जो हर पल तेरे को काटता है
..............................................

न जा उस दर पे कभी
जो देने का एलान हमेशा करते है
अगर गया तो फंस गया
वो फंसाने के लिए ही तो कहते है

दिखला दे उन काफ़िरो को तू 
कैसे ज्वाला से घर जलते है
लगा दे आग उनके महलों को
जो चैन से ना खाने देते है

जब लाज लगी हो दांव पे
बसन भी कोई ना छोड़ता है
जब चार दिन का भूखा मानुष
रो रो के दम तोड़ता है

क्या तुम्हारी हुकूमत इतनी है
अमीरों के आगे हाथ जोड़ता है
ले ले अपने अधिकार तू सारे 
'आज़ाद' तो लहू में पोंड़ता है 

याद आये वो पल

यादों की डोली में तुम्हे बैठाया, नैनो को मैंने दुनिया से छिपाया,
तकदीर में मेरी तुम ना थी, जुदाई ने मुझे पल पल रुलाया.

ख्वाव सजाये तो सजा मिल गयी, हर सजा ने मुझे तन्हा बनाया,
हार गये हम जीती बाजी, जब दिल ने तुम्हे करीब पाया.

आँखों की भाषा  दिल ना समझा, दिल को दिल से दूर पाया,
अन्श्रुओ  की धारा रुक ना सकी, जब बातों ने तेरी ऐसे ठुकराया.

हर अदा को तेरी, मुस्काराहट को तेरी, पलको पे था सजाया,
मेरी नैनो की नींद को जाना, तुमने जाने कहाँ था उड़ाया.

मेरी हर सांस में बसी थी तुम, हर सांस ने मेरे तन को जलाया,
गुजरती व्यार जो अंगराई लेती हुई, व्यार ने मींठा सा दर्द जगाया.

सुबह की महक, शाम की रौनक, अपने से उसे दूर कराया,
क्यों आया इतना करीब उसके, जिससे मैं बहुत दूर पाया.

ठहर जाती है अपनी दुनिया, हृदय की पीड़ा जाग जाने पर,
क्यों लाते वो तन्हाई को, हर सपने के जल जाने पर.

जख्म भरता नहीं, याद मिटती नहीं, घाव गहरा जो लगाया,
अरे 'आज़ाद'   दुनिया बेगानी हुई, क्या तू भी ठोकर खाया.

Thursday, December 15, 2011

सबको समझो

 मैंने ऐसा नहीं सोचा था. मेरे कहने का वो मतलब नहीं था. मैं तो कुछ और सोच के बोला था. पर उसने वो नहीं सुना जो मैं कहना चाह रहा था. उसने उसे गलत समझा. मैंने हर तरह से उसे समझाने की कोशिश की, पर वो तो बड़ी के ऐंठ में था. लोग हर बार वोही बोलते थे कि थोड़ा और अनुभव लो जबकि हकीकत तो उन्हें भी पता होती थी. वो हमेशा कहते थे कि तुम कुछ भी नहीं जानते हो, शायद वो कुछ और ही कहना चाह रहे थे. पर मैं तो नादान
नहीं था. सबकुछ समझ सकता था, उनको वो सब साफ़ साफ़ कहना चाहिए था. पद के नशे में अँधा हुआ हमेशा अँधा ही रहता है क्योंकि शबाब उसे सोचने नहीं देता. उसने मुझे ऐसा बोला मुझे दुःख हुआ, क्योंकि उसने उसे परिहास का विषय बना दिया. उसके द्वारा बोला गया एक एक शब्द मेरे को संताप दे रहा था. पर मैं खामोश ही रहा पता जो था, बात बढने पर सिर कुटते है.------------------------------------------------------------------

शायद मैंने भी कभी किसी को ऐसे ही बोला होगा, मजे लेने के लिए. इन्सान कि प्रव्रत्ति मजे लेने के लिए लालायित जो रहती है. पर सबके मजे लेने के ढंग अलग अलग होते है. कोई इस तरह से लेता है कि किसी को पता भी चलता. कुछ इस तरह से कि जमाना जान जाता है. शायद मैंने भी ये नहीं सोचा होगा कि मेरे मजे लेने से दूसरा क्या क्या कर सकता है? क्योंकि अगर मैं ऐसा सोचता तो मैं जिन्दगी को आदर्श जिन्दगी बना सकता था. इस बात ने मुझे लोगो से बात करना छुड़वा दिया. केवल कैसे हो? क्या चल रहा है? से तंग जो था. लोगो को उबाऊ लोग पसंद नहीं. जबकि सब उनका उदाहरण देते है.-------------------------------------------------------------
एक मानव होने के नाते उससे ये ही तो पूझा था कि मैंने गलती क्या कि है? अगर हम सभ्य समाज के सपने देखते है तो उनके लिए उन पदचिन्हों पर चलना भी पड़ेगा, जिनके बिना सभ्य समाज कि नींव नहीं डाल सकते. अगर मैंने गलती कि थी तो उसे बताना चाहिए था ताकि मैं उससे सबक ले सकू. डांट फटकार कर चले जाने को कह देना, उसके लिए आसान था, शायद और लोगो के लिए भी आसान होता, शायद किसी घड़ी में मेरे लिए भी. पर उस समय मुझे वो सब खल गया. ये तो जिसका प्रतिविम्व था खुद विचलित था. अगर मैं ये किसी और बरिष्ठ को बोला तो वो बोला इसमे बुरा क्या लग गया? परन्तु उस समय जो आवाज, चेहरे कि भाव भंगनाएं बदलते हुए जिस तरके से निकली थी उसको मैं कैसे समझाता. --------------------------------------
मैं धन्यवाद देता हूँ उस ईश्वर का जिसने मौत बनायीं और हम लोगो ने संसार को नश्वरवाद नाम दे दिया. मौत हमारे प्रदर्शन का अंतिम दर्शन है. मौत को भूल जाने वाला ही दुखी और लोलुप बन जाता है. हम सब दुखी और लोलुप बनते जा रहे है. प्रकृति ने धरा को सबकुछ दे रखा है. लेकिन जब धरावासी प्रकृति के नियम तोड़ते है तो उसका कोप जाग जाता है. कोप का भाजन श्रद्धा के तांते से जो होता है. प्रकृति के नियम को समझना और उसे अमल करना थोड़ा कठिन है तभी तो बहुत कम लोग उसके रहस्यों को जानने कि चेष्ठा करते है. ----------------------------------------------------------------
घरो को पत्थरो और दीवारों को तस्वीरों से भर देने से कुछ नहीं होता उससे डरना भी चाहिए. पहले होता आया है इसलिए मैं कर रहा हूँ, ये सही और सटीक जबाब नहीं है. आप मानव हो, मानवता ही आपके रग रग में होनी चाहिए. वो तो कभी न रोया जिसको रोना चाहिए था. परन्तु ये आंसू उनकी ही आँखों में क्यों आते है, जो रोने के लिए बाध्य है. वो कर सकते है सबकुछ पर उनके पत्थर दिल पे सांप जो लेता है. तथा जो कर के दिखाते है उनको पहचानने कि फिदरत हममे है ही नहीं.----------------------------------------------------------------------------
इसने बोला ये करो, उसने बोला वो कर, तुम कर सकते हो कम से कम प्रयास तो करो. हर कोई मेरे से उम्मीद कर रहा है. सभी ने मेरे से कुछ करने के लिए बोला पर किसी ने वो नहीं कहा जो मुझे करना चाहिए था. जो मेरे लिए और आदर्श समाज के लिए जरुरी है. कैसी विडम्बना है लोगो कि वो उढे तो सभी ने उन्हें अपना आदर्श बना लिया, पर जिस समय वो जाग रहे थे तो उन सभी ने उन्हें अपमानित किया था. यह जरुरी नहीं कि अच्छा शरीर, अछ्छा धन और समाज में अछ्छी पहचान, कुछ को हमेशा खुश रख सकती है. वो तो अपने को दुर्बल, असहाय भी मान सकते है. ख़ुशी और दुःख तो ये दर्शाता है कि हमारी सोच - विचारो कि जड़े कितनी पैन्ठी है. ---------------------------------------------------------------------------------------
अब क्या हुआ? मैंने सब कुछ तो कर लिया, जो आपने कहा था. अब आप को गुस्सा क्यों आया? इतने पर वो बोखला कर बोला क्या तुम मेरे गुस्से को कम करोगे? अभी ये काम करना है अभी वो काम करना है. कोई भी अछ्छी तरह से काम नहीं करना चाहता. मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. उनके कहे हुए काम को कोई न करे ये तो नामुमकिन था. फिर वो आखिर जाताना क्या चाह रहा था? जबकि उसको मैंने कभी काम करते देखा ही नहीं बस बोलते ही देखा था. शायद वो ये बताना चाह रहा था कि वो बस बोलेगे और उसके खिलाफ कोई नहीं बोलेगा. -----------------------------------------------------------------------------------------------   




 








     

Monday, November 21, 2011

मिथ्या जगत

जिन्दगी दीरघ हो गई
गम काटे न कटे
और अश्क पलकों पे ही डटे
हर साँस उचास लेती हुई
जाती है और लौट आती है
पर उलझने बार बार लाती है
मंद मंद मधुर गान कोयल
जग को चेता रही है
वो फिर घटा काली छा रही है

गिरने लगे है जमीं पे पैर 
जो कभी सटकर चलते थे
लाठी का सहारा बेबस बना
रुके नहीं वहां, जहाँ रुकते थे
चित्रकारी को दिखाने के लिए
खुद काबिलियत बयां कर गए
आकार दिया अम्बर का
पर मेघ में छिटक कर गए

सूनापन आदर्श बन गया
पर सूना सूना ना था
सूने से दूषित हुए तो
सूना अब अकेलापन ही था
छुपाई हर नींद स्वप्नों से
स्वप्न भोले अलबत्ते थे
भोलेपन में स्वप्न अब
खुद ही खुद फफकते थे

वो लजा गए अर्चन किया
स्वम आतप में निकल गए
अकुंठित हुए तो बंद किये
बंद बंद ही महक गए
धूल धंसित जग से त्याज्य
असहाय बेबस और लाचार
घुली है उस विश्व में
जहाँ ठहरता है भू का भार 

नभ सार, जल सार, भू सार
क्षितिज के उस पार
आग के अन्दर पनपती
मधु सुधा की कहकी मार
कसकता है किसी का हृदयालय
बोध अबोध जब बनता है
दुर्गति आती जगत में
माटी पे श्रद्धा का ताँता लगता है

'आज़ाद' सिमटे भू पे
जग के करुण हृदय पे
मलिन के तल पे
ऐंठ  की पैंठ पे
शांति से सो जाये
खामोश लब्ज साँस ना ले
कलह का भान न ले
प्रेम और उल्लास के साथ
'आज़ाद' लोगो के अश्क पी ले

Saturday, November 12, 2011

प्रजातंत्र के रखवाले


जिनके घरो में दीपक नहीं
नहीं तेल और बाती
वो राह दिखाते भटको को
बने आज खैराती
प्रजातंत्र के रखवाले
पीते निसदिन खून
भरे तिजोरी आपनी
बस छाया यही जूनून

लम्बे लम्बे वायदे काफी 
एक भी न पूरा होता है 
क्या राजनीति मेरे देश की!
बिना रिश्वत, सब अधूरा होता है
हो उद्धार देश का कैसे
जटिल बना है यही सवाल
जिसके हाथ कमान है
उसे तनिक ना ख्याल
 
आखिर कब तक झेलेंगे हम
पाप, अन्याय, भ्रष्टाचार को
क्यों बने है कायर से हम
लानत हमारे विचार को
जाग जा रे मानव अब
छोड़ रंगमय ये बसेरा
'आज़ाद' आवाहन बस एक
हो जग में कभी अँधेरा

Tuesday, October 25, 2011

एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को

एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को 
क्यों ये आग सी लगी है , मेरे मन को 

मैं अभागा हूँ पर , कौतुहल है सबको 
मेरी पीर में मजा आया , मेरे रब को

क्यों खामोश जी रहा हूँ , मैं क्षण क्षण को 
एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को 

मुझे तो लूट लिया, किसी के शबाब  ने 
उसके मस्त नैन ने , उसके हाव भाव ने 

दूर था पर, मिला दिया उसकी छाव ने 
मुझ 'आज़ाद' को विवश किया , उसकी चाव ने 

मैं तो उठ चल दिया , विरह के वन को 
एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को 

Saturday, October 22, 2011

विरह में...

 सुबह की शांत सोच भी , मुझको कलहन दे रही है 
दूर रहकर अन्तः आवाज ही , मुझको कसकन दे रही है 
उसे भूलना जरुरी हो गया है , मगर भूल नहीं पा रहा हूँ 
जिन्दगी में विरह की पीड़ा , वो मुझे छन छन  दे रही है 

मैं जिन्दगी को जी रहा हूँ , या मौत से लड़ रहा हूँ मैं
बेसहारा बना इस विरह में , मुंह ढककर रो रहा हूँ मैं
कोई नहीं मेरा एस जगत में , सिर्फ और सिर्फ उसके बिना
फिर भी मैं पौरष दिखला रहा , पर कायरो सा मर रहा हूँ मैं

छिटक रहे है मेरे अश्क , जग की हर सुनसान राह पर
नैनो में बारिश या अश्को में नैन , प्रीत का मेघ छाह पर 
मन में उजसी तीव्र चपला , मेरे हृदय को जला देती है 
पर विरह जल जल कर बढता , मौत भी चुप उसकी चाह पर 

मेरे शुष्क मरुथल मन में , एक वो ही तो रहते है 
बिन कहे अभोगिन अश्को से , पल पल कुछ कहते है 
घुट घुट कर मैं तो जी उढ़ी , तेरी विरह दशा पर 
बंद पलके कर, मौन तोड़, जो तुम भी हम भी सहते है

तुम क्यों कैद हो उस अतीत में , जो शायद हमारे अपने न थे 
तुम क्यों डूबे मूक स्वप्न में , वो स्वप्न प्यारे सपने न थे 
जग की मान मर्यादाओं ने , कुसुम सा चितवन उजाड़ा था 
'आज़ाद' रमणीय स्वच्छ प्रेम में , हम दोनों तपने न थे

Saturday, October 1, 2011

यही तो अफसोस है मुझे

इस दुनिया का क्या है ? ये तो कुछ भी समझ लेती है
पर प्रिये ! तुमने ना समझा , 
यही तो अफसोस है मुझे.

साथ रहना चाहा हरवक्त तुम्हारे, वो चंद लम्हे मेरे अहम थे 
पर उन चंद लम्हों ने, दिल में तुम्हारे, ख्वाब ना पलाया 
यही तो अफसोस है मुझे.

तुम्हारी हंसी का कायल था मैं, तुम्हारे गम में आंसू मेरे बहे थे
पर आज, वक्त के कदमो से डरकर, तूने मुझे भुला दिया
यही तो अफसोस है मुझे.

"मैं तुम्हारी हूँ" तुमने क्यों कहा था ? मैं सच समझ बैठा
तुम्हारे भोलेपन की आहों में, मैं दरिया सा बह गया 
यही तो अफसोस है मुझे.

मैं जा रहा था बहुत दूर, मंजिल का मुझे पता नहीं
आगे पथ सुनसान तो क्या, पर तू मुझसे अंजान हुई 
यही तो अफसोस है मुझे.

तेरी नजरो से बंधा था मैं, जाने क्यों ? पता नहीं
पर तेरी नजरे, तो मेरी नजरो से, कभी मिली ही नहीं
यही तो अफसोस है मुझे.

तेरी मूरत मेरे अन्तः में बसी, दिन रात उसको संवारता था मैं
मेरे नयनो की बारिश, नहलाती उसे हमेशा, पर तेरी पलकें भींगी नहीं
यही तो अफसोस है मुझे.

'आज़ाद' बैचेन घड़ी में घिर गया, तेरी ख़ामोशी ना टूटे, यही इन्तजार था
पर तेरे, अब तक के खामोश लब्ज, कुछ बोल गए
यही तो अफसोस है मुझे.    

Tuesday, September 13, 2011

मैं तो हो चला हूँ दीवाना

मैं तो हो चला हूँ दीवाना
मैं तो हो चला हूँ दीवाना

तुम्हारा बार बार, मेरे पास आना
आकर के हृदय को, जला जाना
यादों में हंसी ही, याद आना
मेरी मदहोशी, को भी, छू जाना

अपने लब्जो को, होंठो से छिपाना
मैं तो हो चला हूँ दीवाना
रह रह कर, मुझसे बातें करना
ना मन, फिर भी, मुझसे है पढना

बिना काम हमेशा, मेरे साथ चलना
मेरी नादानी पर, गुस्से से चढ़ना
वो बहुत करीब से, हाथ मिलाना
मैं तो हो चला हूँ दीवाना

वो पल पल, मुझे ही, निहारते रहना
कुछ कहने की, हमेशा, कोशिश करना
व्याकुल हमेशा, हर पल जो रहना 
गम ही  गम, शायद, दर्द जो सहना

वो होले से मेरे, दिल को हिलाना
मैं तो हो चला हूँ दीवाना
कभी बक बक, तो कभी, चुप हो जाना
कभी हंसी चेहरा, तो कभी रुलाना

बिछुड़ते जब हम, कभी था रो जाना
पूछा हमेशा, कुछ नहीं, मुझे होगा जाना
वो अजीब ढंग से, दर्दो को सिलाना
मैं तो हो चला हूँ दीवाना

वो शर्म की डोरी में, बंधी होगी शायद
मेरी ख़ुशी हमेशा, चाहती होगी शायद
मिलकर बिछुड़े ना, डरती थी शायद
मेरे जबाब पर, शक करती थी शायद

अपने मासूम नैनो का, गूंठ  पिलाना
मैं तो हो चला हूँ दीवाना
रात भर सोचता रहा, जागता रहा मैं
उसको दिल के आईने से, झांखता रहा मैं

रब उसको ख़ुशी दे, मांगता रहा मैं
उसकी पीड़ा ख्यालों में, दहलता रहा मैं
उसके दर्दो से, मेरा चिल्लाना
मैं तो हो चला हूँ दीवाना

मिली जब, मैंने पूछ ही लिया अब
दिल में कुछ तुम्हारे, ठीक नहीं सब?
खामोश रही पर, पलके भींगी थी तब
उसके मासूम अश्क, मुझको छुए थे जब
'आज़ाद' विरह में, अब उसका सताना

मैं तो हो चला हूँ दीवाना

Saturday, July 16, 2011

अंतिम ख़त

उस रात मैं अच्छी तरह से सो नहीं पाया था| कारण? मैं दुनिया के रीती रिवाजो और उनके कानूनों को करीब से झाँखने की कोशिश कर रहा था| सोच रहा था कि  हर आदमी इतना तो स्वत्रंत होना चाहिए कि उसको अपनी जान गंवानी कि नौबत ना आये| मैं दिमाग की अंतिम सतह पर था, क्योंकि मैंने कभी सोचा भी ना था कि लोग हालात में क्या क्या कर सकते है? उसके बाद मैंने जिन्दगी को अलग नजरिये से देखना आरम्भ किया क्योंकि उस घटना ने मुझे सोचने पर मजबूर जो किया था|   
दरवाजे पर आहात हुई थी बाहर कोई बुला रहा था आकाश दोड़ता हुआ गया| वो मेरे रूम में ही रहता था| मैं दुपहर की नींद का लुफ्त उठा रहा था| वो अपनी दिनचर्या को सख्ती से निभाता था| सुबह से लेकर शाम तक मुझे समय की कीमत ही बताता था| हम दोनों का इंजीनियरिंग में प्रथम साल चल रहा था| परीक्षाएं पास थी|
दरवाजे पर पोस्टमेन था| मैंने उसे उछलते  हुए देखा| वो ख़ुशी से चिल्ला रहा था मेरा ख़त आया है, मुझे उसने फिर याद किया है, वो मुझे भूले नहीं है, वो मेरे अपने है, वो मेरा सब कुछ है, इस महीने में तीसरा ख़त आया है, पर अफ़सोस मैं एक भी ख़त नहीं डाल सकता, ये क्या जिन्दगी है मेरी? दुनिया की बंदिशों ने मुझे बांध के रखा है| लेकिन जल्दी... जल्दी मैं उन्हें मिलने जाऊंगा|
वो जल्दी जल्दी में जाने क्या क्या बोलता जा रहा था| वो बहुत खुश नजर रहा था| मैंने पूछा क्या हुआ भाई किसका ख़त है? वो बोला मेरे महबूब का|  
उसने जल्दी से लिफाफा फाड़ा और ख़त पढ़ना आरम्भ किया| मैंने मजाक के लहजे से बोला, भाई अपने महबूब की कुछ खुशखबरी मुझे भी सुना दो| वो ख़ुशी में बोला ठीक है मैं जोर जोर से पढ़ता हूँ| और वो जोर जोर से पढ़ने लगा| उसने पढ़ा "मेरे प्राणप्रिये दोस्त, अभी तक तो तुम मेरे सिर्फ अच्छे दोस्त थे लेकिन आज मैं तुम्हे अपना......... " इसके बाद वो धीरे धीरे पढ़ने लगा और धीरे धीरे उसके गाल अंशुओं से भीगने लगे| मैंने पूछा क्या हुआ? वो कुछ नहीं बोला| वो पढ़ रहा था और रो  रहा था| मैं भी परेशान हो गया शायद कुछ बुरी खबर है| मैंने फिर पूछा सब ठीक तो है? वो फूट फूट कर रोने लगा और अपना सिर पकड़कर नीचे बैढ़ गया| मैंने अपना बिस्तर छोड़ा और उसके पास गया| उसके कंधे पर हाथ रख कर पूछा क्या हुआ? उसने कुछ कहा नहीं| वो ख़त मुझे पकड़ा दिया| इससे पहले वो अपना ख़त मुझे कभी नहीं पढने देता था| मैंने उससे कहा क्या मैं इसे पढ़ सकता हूँ? उसने सम्मति मैं अपना सिर  हिला दिया| उसके बाद मैंने ख़त पढना आरम्भ किया| मैं जैसे जैसे ख़त पढ़ रहा था मेरे दिमाग के भाव बदल रहे थे| जब सारा ख़त पढ़ लिया तो मैं भी खामोश हो चला था और ना चाहते हुए भी आंसुओं को रोक नहीं पा रहा था| मेरी समझ में नहीं  रहा था की दोस्त को कैसे सांत्वना  दू क्योंकि मैं खुद कमजोर हो गया था| उस ख़त ने मेरी जुबान  रोक दी थी| ख़त का एक एक शब्द मेरे दिमाग में कोंध रहा था| क्योंकि वो उसका अंतिम ख़त था| ख़त में लिखा था 
"मेरे प्राणप्रिये दोस्त, अभी तक तो तुम मेरे अच्छे दोस्त थे लेकिन आज में तुम्हे अपना परमेश्वर मानती हूँ| तुम मेरे पास रहते थे तो मुझे बहुत अछ्छा लगता था| लगता था जैसे संसार की हर ख़ुशी मुझे मिली है| मैं ये ख़ुशी हमेशा के लिए ताउम्र पाना चाहती थी| पर वो साथ आजीवन नहीं हो पाया| आज मैं तुम्हे अपने दिल की बात बता रही हूँ तुम्हारे बिना रहते हुए मुझे पता चला की मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती| जब तुम एक भी दिन नहीं मिलते थे तो मैं बहुत रोती थी और खाना भी नहीं खाती थी, उस दिन अपने जीवन का बड़ा दुखमय दिन मानती थी| मुझे नहीं पता प्यार क्या होता है? लेकिन ये तन्हाई मुझे अकेला अकेला सा महसूस होने पर मजबूर कर रही है| ऐसा लगता है जैसे मेरी दुनिया उजड़ गयी है, तुम्हारे बिना किसी भी चीज की इच्छा ही नहीं होती| रात को तुम्हारे स्वप्न और दिन में तुम्हारी कल्पना मुझे न सोने देती है न कुछ खाने देती है| मुझे तुम्हारे विरह ने बहुत कमजोर बना दिया है| मेरी हर स्वास में तुम्हारा भोलापन, तुम्हारे संग की बातें, तुम्हारा वो मुझे पढाना, तुम्हारी आँखों में मेरे लिए वो अंशु, मुझे परेशान करते हुए आते है| क्या तुम भी कभी पुरानी यादों को याद करते हो? क्या तुम भी मुझे चाहते हो? क्या तुम भी मेरे लिए इतना ही परेशान हो? शायद इनका जबाब मैं नहीं सुन सकती| मेरे घर वाले मुझे कही जाने नहीं देते उन्होंने यहाँ मेरी जेल बना  दी है| मैंने पढने को बोला तो कहते  है की लड़की जितना कम पढ़े उतना ही अछ्छा है| मेरे ज्यादा कहने पर उन्होंने मुझे बी का फॉर्म प्राइवेट भरवा दिया है| मेरे घर वाले मेरी शादी करना चाहते है उन्होंने लड़का भी खोज लिया है जबकि मैं तुमसे शादी करना चाहती हूँ| पर मैं अपने घरवालो को भी नहीं बता सकती क्योंकि तुम तो जानते हो की मेरे घर वाले कितने बुरे इंसान है| अगर मैंने तुम्हारे बारे में  बताया तो वो तुम को मार डालेंगे इसी वजह से मैंने नहीं बताया| तुम पढने मे काफी  अच्छे हो तुम अच्छा पढ़ लिखो| अगर हम भाग कर भी गए तो घर के रास्ते बंद हो जायेंगे और अभी हम अपने पैरो पर भी खड़े नहीं हुए है| इससे तुम्हारा भविष्य ख़राब हो जायेगा| मैं तुम्हारे भविष्य को ख़राब नहीं कर सकती| मुझे ख़ुशी होगी की तुम खूब मन लगा के पढो| मेरी परवाह ना करना| क्योंकि हम लडकियों का इस संसार में कोई औचित्य नहीं है| उन्हें तो घर की चारदीवारी में  बांध के रखा जाता है| हम लड़किया तो गुलामो की जिन्दगी जीते है| हमारा घूमना तो दूर, किसी से बात भी नहीं कर सकते| क्या जीवन है हमारा| मैं किसी दूसरे  से शादी नहीं करूंगी क्योंकि मैं तुम्हारी ही रहूंगी हर पल हर जगह हर माहोल  में| मैं तुमसे प्यार करती हूँ इसलिए मैंने मरने का फैंसला लिया है मैं अपनी जान दे रही हूँ| तुम खुश रहना और अछ्छी तरह पढना| तुम्हारी  अपनी "आदी"
इस ख़त ने मुझे बैचेन कर दिया था| पर मैंने अपने अन्दर भाव को छिपाकर उसे बोला कि उसने मजाक किया है क्योंकि वो तुमसे प्यार करती है और उसका मन तुमसे मिलने को होगा इसलिए इस तरह का ख़त लिखा है| इसमे परेशान होने कि कोई जरुरत नहीं है| तुम जाओ और उससे मिल आओ| मैंने उसे बोला कृपया  तू जल्दी से जा  और उसे यकीन दे देना की तू भी उसी का है| मैं उसे बहुत तरह से समझा रहा था पर शायद वो जानता था कि आदी इस तरह का मजाक कभी नहीं करेगी| 
मैं सोच रहा था की लोग  ऐसा क्यों करते है की जिसकी वजह से किसी को अपनी जान गवानी पड़ती है|  क्या लोग अपने रीती रिवाजो को बदल नहीं सकते| आज तीन साल के बाद वो धीरे धीरे हंसने की कोशिश करता है पर हंस नहीं पाता  वो आज भी ख़ामोशी में है और दुनिया से अलग अपने ही विचारो में जी रहा है|