Monday, November 21, 2011

मिथ्या जगत

जिन्दगी दीरघ हो गई
गम काटे न कटे
और अश्क पलकों पे ही डटे
हर साँस उचास लेती हुई
जाती है और लौट आती है
पर उलझने बार बार लाती है
मंद मंद मधुर गान कोयल
जग को चेता रही है
वो फिर घटा काली छा रही है

गिरने लगे है जमीं पे पैर 
जो कभी सटकर चलते थे
लाठी का सहारा बेबस बना
रुके नहीं वहां, जहाँ रुकते थे
चित्रकारी को दिखाने के लिए
खुद काबिलियत बयां कर गए
आकार दिया अम्बर का
पर मेघ में छिटक कर गए

सूनापन आदर्श बन गया
पर सूना सूना ना था
सूने से दूषित हुए तो
सूना अब अकेलापन ही था
छुपाई हर नींद स्वप्नों से
स्वप्न भोले अलबत्ते थे
भोलेपन में स्वप्न अब
खुद ही खुद फफकते थे

वो लजा गए अर्चन किया
स्वम आतप में निकल गए
अकुंठित हुए तो बंद किये
बंद बंद ही महक गए
धूल धंसित जग से त्याज्य
असहाय बेबस और लाचार
घुली है उस विश्व में
जहाँ ठहरता है भू का भार 

नभ सार, जल सार, भू सार
क्षितिज के उस पार
आग के अन्दर पनपती
मधु सुधा की कहकी मार
कसकता है किसी का हृदयालय
बोध अबोध जब बनता है
दुर्गति आती जगत में
माटी पे श्रद्धा का ताँता लगता है

'आज़ाद' सिमटे भू पे
जग के करुण हृदय पे
मलिन के तल पे
ऐंठ  की पैंठ पे
शांति से सो जाये
खामोश लब्ज साँस ना ले
कलह का भान न ले
प्रेम और उल्लास के साथ
'आज़ाद' लोगो के अश्क पी ले

Saturday, November 12, 2011

प्रजातंत्र के रखवाले


जिनके घरो में दीपक नहीं
नहीं तेल और बाती
वो राह दिखाते भटको को
बने आज खैराती
प्रजातंत्र के रखवाले
पीते निसदिन खून
भरे तिजोरी आपनी
बस छाया यही जूनून

लम्बे लम्बे वायदे काफी 
एक भी न पूरा होता है 
क्या राजनीति मेरे देश की!
बिना रिश्वत, सब अधूरा होता है
हो उद्धार देश का कैसे
जटिल बना है यही सवाल
जिसके हाथ कमान है
उसे तनिक ना ख्याल
 
आखिर कब तक झेलेंगे हम
पाप, अन्याय, भ्रष्टाचार को
क्यों बने है कायर से हम
लानत हमारे विचार को
जाग जा रे मानव अब
छोड़ रंगमय ये बसेरा
'आज़ाद' आवाहन बस एक
हो जग में कभी अँधेरा