Monday, December 19, 2011

अन्तःद्वंद

ये कैसी उहापोह मेरे अन्तः में
क्यों इसके आगे मैं झुक जाऊ
क्यों बदल रही है पवन रास्ते
क्या मैं धूल आंधियो से रुक जाऊ

क्यों डूब रहा बीते अतीत में
कैसे उन कष्टों से मैं मुकर जाऊ
ऐ दुनिया दे इतनी नुफरत मुझे
कि मैं काँटों से भी गुजर जाऊ

जो थम गया वक्त के कदमो में
उस कायर को क्या नाम दू
जो गिर गिर के चलता रहे
उसे हृदय का स्नेह वार दू

जो थमे नहीं चट्टानों से भी 
उन्हें जीवन की हर हंसी बहार दू
ऐ ज़माना, रो इस कदर तू
मैं विपत्तियों को हटा, नया संसार दू
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जब पीड़ा से सना सागर भी
लहरों को किनारों पे धोता है
बढ़ रहा नीर उसके अन्शुओ से
जब आप आप ही रोता है

कैसा दुःख कैसी मुसीबत
जिस चिर वेदना में तू खोता है
भूल जा जो हुआ होने वाला
ये जग तो स्वार्थ का झरोंता है

बढ़ता रह मुसाफिर आगे
परवाह न कर दुनिया की ज़रा
जो छूट जाये अपने भी तो  क्या
जा उस ओर जहाँ पौरुष भरा

वो कदम तुझको रोकेंगे नहीं
भर देंगे वीरत्व ना अफ़सोस ज़रा
खुद में डूब जा इतना ओ राही
ना सुन क्या बुरा क्या खरा
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झड़ते है आंसू  किसी की आँखों से
तो दिल मेरा क्यों रोता है
गरीब बेसहारो का खा खा कर
कोई सुख  से महलों में सोता है

ये उसकी किस्मत ये मेरी है
दिन रात इसी में क्यों खोता है
उठ चल भर कर नैनो में रुधिर
क्या तेरे तन कुछ ना होता है

जब चाहता गुलामी करना तू
क्यों आजादी का नारा लगाता है
क्यों भूल रहा तू स्वम में है
बेवक्त वेबुनियाद जब चिल्लाता है

चींख चींख कर गला रुंध गया
भुजाओ को क्यों नहीं अजमाता है
खोल ले सीने के हर जख्म को
जो हर पल तेरे को काटता है
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न जा उस दर पे कभी
जो देने का एलान हमेशा करते है
अगर गया तो फंस गया
वो फंसाने के लिए ही तो कहते है

दिखला दे उन काफ़िरो को तू 
कैसे ज्वाला से घर जलते है
लगा दे आग उनके महलों को
जो चैन से ना खाने देते है

जब लाज लगी हो दांव पे
बसन भी कोई ना छोड़ता है
जब चार दिन का भूखा मानुष
रो रो के दम तोड़ता है

क्या तुम्हारी हुकूमत इतनी है
अमीरों के आगे हाथ जोड़ता है
ले ले अपने अधिकार तू सारे 
'आज़ाद' तो लहू में पोंड़ता है 

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