Wednesday, October 28, 2015

वक्त


कभी कभी वक्त हमें कमजोर करता चला जाता है । हम वक्त की आँधी में रेत की तरह उड़ते रहते है । हमारे सपने जो हमारे दिलों-जहाँ में बसे थे, वक्त की रफ़्तार में फीके पड़ते जाते है । ऐसा लगता है हमारा अपने ऊपर कोई संतुलन नहीं है । हम कुछ नहीं कर सकते । हम अपनी जिंदगी खो चुके है । हमारी मन:स्थिति निष्किय अवस्था में जा चुकी है । हम दुःख की अंतिम सतह में पहुंच जाते है । जहाँ पहुंचकर हम मौत का इन्तजार करते है । हम थक चुके होते है रोज रोज की कलह से ।
ये दुनिया एक मोहमाया है जिसमे हम सब उलझे हुए है । क्षणिक सुख को हम उत्सव की तरह मनाते है परन्तु क्षणिक दुःख हमसे असहजनीय हो जाता है । हमारे अंदर इतना भी सामर्थ्य नहीं होता की हम उस पल को बुरे स्वप्न की तरह जाने दे । हम सम और विषम परिस्थितियों में एक जैसे तो नहीं रह सकते क्योंकि हम इंसानों की दुनिया में बसते है । क्या हम उन परिस्थितियों में ऐसा कुछ नहीं कर सकते जिससे दुनिया ये ना जान पाये की हम उन हालात से गुजर रहे है ? हम अपनी भड़ास किसी निर्दोष व्यक्ति पर कैसे निकाल सकते है ? क्या हम इंसानियत की हदों को पार करके कुछ पा सकते है ?
दुनिया बहुत बड़ी है और हम अक्सर सोचते है की हमारे पास इतना वक्त नहीं की हम किसी को  व्यक्तिगत तौर पर परखे । क्या ये सही है की किसी तीसरे व्यक्ति के कहने से हम किसी का कुछ अहित करें ? क्या तीसरा व्यक्ति हमेशा सही बोलता है ? क्या तीसरे व्यक्ति का उस अहित में अपना हित नहीं छुपा है ? हममे से ज्यादातर लोग ईश्वर को मानते है, उसके आगे सिर झुकाते है परन्तु हम इंसानों की दुनिया में उन लोगों का अहित सोचते है जो कभी किसी का अहित नहीं सोचते । हम अक्सर उन बातों को ताजा करते रहते है जिन्होंने हमें कभी बहुत दुःख दिए थे । हम जिंदगी को इसी उलझन में निकाल देते है की कब किसने क्या बोला था ? बिन मतलब छोटी छोटी बातों को बड़ा बना देते है । क्या जिंदगी जीने का यहीं एकमात्र तरीका है ?
किसी से बदला लेने से अच्छा उसे बदलना होता है । किसी ने हमारे साथ बुरा किया है तो क्या हम दूसरों के साथ भी वहीँ बर्ताव करें ? वक्त हमेशा चलायमान रहता है और ये भी संभव है की जिसने हमारे साथ बुरा किया वो आने वाले दौर में हमारा परम हितेषी बन जाये । वक्त हर प्राणी की मनोदशा को बदलता रहता है । वक्त किसी का ग़ुलाम नहीं सिवाय कर्मयोगी के । कर्मयोगी वक्त की हर चाल को समझता है और वो सबको अपना ग़ुलाम बना सकता है पर वो  ऐसा नहीं करता । कर्मयोगी संसार की मोहमाया, आशा, तृष्णा, दुःख, सुख, जीवन, मरण, यश, अपयश इत्यादि से अलग हो चुका होता है । क्या ऐसे इन्सान भी धरा पर है ?
जिंदगी जीने का सबका अपना तरीका होता है । परिस्थिति जिंदगी जीने के ढंग को बदल देती है । कुछ जिंदगी को जीते है तो कुछ को जिंदगी जी लेती है । हम सब लघु समय के लिए धरा पर जन्म लेते है पर इस लघु समय में हम दोस्त कम और दुश्मन ज्यादा बनाते है, सिर्फ अपने लघु विचारों से, लघु आकर्षण के लिए, लघु शान शौकत अय्यासी के लिए ।  हमारी विचार धारा इतनी संकुर क्यों होती जा रही है ?