Saturday, October 22, 2011

विरह में...

 सुबह की शांत सोच भी , मुझको कलहन दे रही है 
दूर रहकर अन्तः आवाज ही , मुझको कसकन दे रही है 
उसे भूलना जरुरी हो गया है , मगर भूल नहीं पा रहा हूँ 
जिन्दगी में विरह की पीड़ा , वो मुझे छन छन  दे रही है 

मैं जिन्दगी को जी रहा हूँ , या मौत से लड़ रहा हूँ मैं
बेसहारा बना इस विरह में , मुंह ढककर रो रहा हूँ मैं
कोई नहीं मेरा एस जगत में , सिर्फ और सिर्फ उसके बिना
फिर भी मैं पौरष दिखला रहा , पर कायरो सा मर रहा हूँ मैं

छिटक रहे है मेरे अश्क , जग की हर सुनसान राह पर
नैनो में बारिश या अश्को में नैन , प्रीत का मेघ छाह पर 
मन में उजसी तीव्र चपला , मेरे हृदय को जला देती है 
पर विरह जल जल कर बढता , मौत भी चुप उसकी चाह पर 

मेरे शुष्क मरुथल मन में , एक वो ही तो रहते है 
बिन कहे अभोगिन अश्को से , पल पल कुछ कहते है 
घुट घुट कर मैं तो जी उढ़ी , तेरी विरह दशा पर 
बंद पलके कर, मौन तोड़, जो तुम भी हम भी सहते है

तुम क्यों कैद हो उस अतीत में , जो शायद हमारे अपने न थे 
तुम क्यों डूबे मूक स्वप्न में , वो स्वप्न प्यारे सपने न थे 
जग की मान मर्यादाओं ने , कुसुम सा चितवन उजाड़ा था 
'आज़ाद' रमणीय स्वच्छ प्रेम में , हम दोनों तपने न थे

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