Sunday, March 25, 2012

आह! ये विरह

 उसके कुमदिनी मुखमंडल की, आभा में खोया हूँ
उसके सिर से सटा सिर, स्वप्नों में सोया हूँ
उसकी बातों के जादुई नशे में गुमसुम हुआ
रजनी दिवस सारी, गुमसुम सा ही रोया हूँ

प्रेम विरह के जंजाल में, फंस गया हूँ मैं
उस तन के हावभाव में, कंस गया हूँ मैं
उड़ते हुए मेघो को पकड़ रहा हूँ मैं
बिन बात झुलस से, हंस रहा हूँ मैं

पवन की चाल को मात देती हुई, आती है जाती है
यादें उसकी मुझे, पल पल रुलाती है
अपनी हालत को देख खुद आंसू बहा रहा हूँ
वक्त ठहर जा वहां, जहाँ वह कुछ गुनगुनाती है

खामोश नजारों में कोई, आवाज नहीं आती
प्रिये! प्रिये! क्या तुम्हे मेरी आवाज, अब नहीं भाती
ऐ जगत के पदार्थो तुम तो मेरा साथ दे दो अब
विरह के दर्द से ऊबा मैं, अपने में समेत ले री माती

छिटक गए है मोती आँखों के सारे, इस धरा पर
क्यों तन को विरह में लपेटे, मैं खड़ा धरा पर
हे चैतन्य अविनाशी, अद्वितीय, तेरी माया अलौकिक है
'आज़ाद' वक्त के कदमो तले जीवन में, मरा पर