Wednesday, June 6, 2012

बहकावा

 मेरे तन को जीवन देने वाली,
साँस बार बार लौट के आती है।
पर उसमे भी उसी का ज्ञान होता है।।

बिसराना चाहता अतीत की भूलों को,
पर याद उनकी वापिस लौट आती है।
उन यादों में भी मेरे आंसूओं  का पान होता है ।।

ईश्वर  ने पंचतत्वों को एकत्र किया,
पर उसमे मोह, ममता, बासना की बू आती है।
अगर ये भी सच्चा, तो इसमें भी मान होता है।।

विश्वरचेता  ने मानव को कुटिलता सिखला दी,
इसमें इंसान की हैवानियत नजर आती है।
और आज के अंधे युग में इसका सम्मान होता है।।

रिश्ते, उम्र, परिवार ये सब तो तुक्ष्य है,
उस ब्रह्मा के इशारों से ही दुनिया चलती है।
किसी के कलेजे में दर्द हो तो किसी का रसपान होता है।।

डूबता है कोई ख़ामोशी के मंजर में,
क्योंकि दुनिया में बातों को हवा दे दी जाती है।
पता नहीं नैनो के पानी का, जब सिसक के कोई रोता है।।

बंदिशों में तन बाणी को रख सकते है मुसाफिर,
पर नैनों की भाषा में आवाज नहीं आती है।
'आज़ाद' चाहता नहीं पर किसी के ख्याल में खोता है।।

उसके चहेरे की मुस्कान, मेरे सामने का प्रदर्शन,
हृदय का पता नहीं पर ये आकर्षण की मदभाती है।
'आज़ाद' मिथ्या सब, डूब उसमे जो विषपान में सोता है।।