एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को
क्यों ये आग सी लगी है , मेरे मन को
मैं अभागा हूँ पर , कौतुहल है सबको
मेरी पीर में मजा आया , मेरे रब को
क्यों खामोश जी रहा हूँ , मैं क्षण क्षण को
एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को
मुझे तो लूट लिया, किसी के शबाब ने
उसके मस्त नैन ने , उसके हाव भाव ने
दूर था पर, मिला दिया उसकी छाव ने
मुझ 'आज़ाद' को विवश किया , उसकी चाव ने
मैं तो उठ चल दिया , विरह के वन को
एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को
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