Tuesday, October 25, 2011

एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को

एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को 
क्यों ये आग सी लगी है , मेरे मन को 

मैं अभागा हूँ पर , कौतुहल है सबको 
मेरी पीर में मजा आया , मेरे रब को

क्यों खामोश जी रहा हूँ , मैं क्षण क्षण को 
एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को 

मुझे तो लूट लिया, किसी के शबाब  ने 
उसके मस्त नैन ने , उसके हाव भाव ने 

दूर था पर, मिला दिया उसकी छाव ने 
मुझ 'आज़ाद' को विवश किया , उसकी चाव ने 

मैं तो उठ चल दिया , विरह के वन को 
एँ बरसते मेघ , ना भीगा मेरे तन को 

Saturday, October 22, 2011

विरह में...

 सुबह की शांत सोच भी , मुझको कलहन दे रही है 
दूर रहकर अन्तः आवाज ही , मुझको कसकन दे रही है 
उसे भूलना जरुरी हो गया है , मगर भूल नहीं पा रहा हूँ 
जिन्दगी में विरह की पीड़ा , वो मुझे छन छन  दे रही है 

मैं जिन्दगी को जी रहा हूँ , या मौत से लड़ रहा हूँ मैं
बेसहारा बना इस विरह में , मुंह ढककर रो रहा हूँ मैं
कोई नहीं मेरा एस जगत में , सिर्फ और सिर्फ उसके बिना
फिर भी मैं पौरष दिखला रहा , पर कायरो सा मर रहा हूँ मैं

छिटक रहे है मेरे अश्क , जग की हर सुनसान राह पर
नैनो में बारिश या अश्को में नैन , प्रीत का मेघ छाह पर 
मन में उजसी तीव्र चपला , मेरे हृदय को जला देती है 
पर विरह जल जल कर बढता , मौत भी चुप उसकी चाह पर 

मेरे शुष्क मरुथल मन में , एक वो ही तो रहते है 
बिन कहे अभोगिन अश्को से , पल पल कुछ कहते है 
घुट घुट कर मैं तो जी उढ़ी , तेरी विरह दशा पर 
बंद पलके कर, मौन तोड़, जो तुम भी हम भी सहते है

तुम क्यों कैद हो उस अतीत में , जो शायद हमारे अपने न थे 
तुम क्यों डूबे मूक स्वप्न में , वो स्वप्न प्यारे सपने न थे 
जग की मान मर्यादाओं ने , कुसुम सा चितवन उजाड़ा था 
'आज़ाद' रमणीय स्वच्छ प्रेम में , हम दोनों तपने न थे

Saturday, October 1, 2011

यही तो अफसोस है मुझे

इस दुनिया का क्या है ? ये तो कुछ भी समझ लेती है
पर प्रिये ! तुमने ना समझा , 
यही तो अफसोस है मुझे.

साथ रहना चाहा हरवक्त तुम्हारे, वो चंद लम्हे मेरे अहम थे 
पर उन चंद लम्हों ने, दिल में तुम्हारे, ख्वाब ना पलाया 
यही तो अफसोस है मुझे.

तुम्हारी हंसी का कायल था मैं, तुम्हारे गम में आंसू मेरे बहे थे
पर आज, वक्त के कदमो से डरकर, तूने मुझे भुला दिया
यही तो अफसोस है मुझे.

"मैं तुम्हारी हूँ" तुमने क्यों कहा था ? मैं सच समझ बैठा
तुम्हारे भोलेपन की आहों में, मैं दरिया सा बह गया 
यही तो अफसोस है मुझे.

मैं जा रहा था बहुत दूर, मंजिल का मुझे पता नहीं
आगे पथ सुनसान तो क्या, पर तू मुझसे अंजान हुई 
यही तो अफसोस है मुझे.

तेरी नजरो से बंधा था मैं, जाने क्यों ? पता नहीं
पर तेरी नजरे, तो मेरी नजरो से, कभी मिली ही नहीं
यही तो अफसोस है मुझे.

तेरी मूरत मेरे अन्तः में बसी, दिन रात उसको संवारता था मैं
मेरे नयनो की बारिश, नहलाती उसे हमेशा, पर तेरी पलकें भींगी नहीं
यही तो अफसोस है मुझे.

'आज़ाद' बैचेन घड़ी में घिर गया, तेरी ख़ामोशी ना टूटे, यही इन्तजार था
पर तेरे, अब तक के खामोश लब्ज, कुछ बोल गए
यही तो अफसोस है मुझे.