Tuesday, July 21, 2015

तो जानोगे


क्या हाल है मेरा, तेरे से दूर रहकर;
कभी करीब से देखोगे, तो जानोगे ॥
तुम्हे मेरी आँखों में, नमीं नहीं दिखती;
कभी दिल के रास्ते आओ, तो जानोगे ॥
तुम्हे शिकायत मेरे, लब्ज न बोलने से है;
मेरी धड़कन की भाषा समझोगे, तो जानोगे ॥
तुम्हारी जुदाई मुझे, कितना तड़फाती है;
कभी तन्हा रहोगे, तो जानोगे ॥
मैं रिश्तों के बंधन से, कायर हो गया हूँ;
कभी रिश्तों को मानोगे, तो जानोगे ॥
तेरा कहना मुझे बाँहों में, समाया नहीं कभी;
'आज़ाद' वक्त को गुजरने दे, तभी तो जानोगे ॥ 

Saturday, July 18, 2015

बुफे की दावत*

आप माने या न माने,
पर हमारे लिए सबसे बड़ी आफत ।
बुफे की दावत ॥
एक दिन हमें भी, जाना पड़ा बारात में ।
बीबी बच्चे थे साथ में ॥
सभी के सभी बाहर से शो पीस, मगर अंदर से रूखे थे ।
मगर क्या करे भाई साहब, सुबह से भूखे थे ॥
जैसे ही खाने का संदेसा आया हाल में ।
भगदड़ सी मच गयी पंडाल में ॥
एक के ऊपर एक बरसने लगे ।
जिसने झपट लिया तो झपट लिया, बाकी के खड़े तरसने लगे ॥
एक व्यक्ति हाथ में प्लेट लिए, इधर से उधर चक्कर लगा रहा था ।
खाना लेना तो दूर उसे देख भी नहीं पा रहा था ॥
दूसरा
अपनी प्लेट में चावल की तश्तरी झाड़ लाया था ।
उससे तो कही ज्यादा, अपना कुर्ता फाड़ लाया था ॥
तीसरी
एक महिला थी जो ताड़ के वृक्ष की तरह तनी थी ।
उसकी आधी साड़ी तो, पनीर की सब्जी में सनी थी ॥
उसे बार बार धो रही थी ।
पड़ोसिन की पहन कर आई थी, इसलिए रो रही थी ॥
चौथा
बेचारा गरीब था, लाचार था ।
इसलिए कपडे उतार कर, पहले से ही तैयार था ॥
पाँचवा
अकेले ही सारे झटके झेल रहा था ।
भीड़ में घुसने से पहले, डंड पेल रहा था ॥
झठा
कल्पना में ही खाना खा रहा था ।
प्लेट दूसरे की देख रहा था, मुंह अपना चला रहा था ॥
सांतवें
का तो मालिक ही रब था ।
प्लेट तो उसके हाथ में थी, मगर हलवा गायब था ॥
आंठवा
इन हरकतों से बहुत ज्यादा परेशान था ।
इसलिए उसका बीबी बच्चों से ज्यादा, प्लेट पर ध्यान था ॥
नवां
अजीब हरकते कर रहा था ।
खाना खाने की बजाय, अपनी जेबों में भर रहा था ॥
दसवाँ
स्वयं लड़की वाला था, जिसके प्राण कंठ में अड़े थे ।
घराती तो सारे जीम रहे थे, और बाराती बेचारे सडकों पर खड़े थे ॥
अंत में देखते हुए ये हालत ।
हमने पत्नी से कहाँ 'डियर', लौट चले सही सलामत ॥
सुनते ही वो बिगड़ गयी ।
पता नहीं, किस बेफकूफ के पल्ले पड़ गयी ॥
इससे अच्छा तो किसी पहलवान से शादी रचाती ।
तो कम से कम, भूखी तो न मारी जाती ॥
पर इससे शादी रचा के, आज तक अपने आप को कचोट रही हूँ ।
जिंदगी में पहली बार, किसी दावत से बिना कुछ खाए लौट रही हूँ ॥  

Wednesday, July 1, 2015

बस जी रहा हूँ हसरतों को दबाके


मैं दूर तुझसे हो रहा हूँ, सिर्फ तेरी ही ख़ुशी के लिए ।
प्यार तो अब भी है तुझसे, बस जी रहा हूँ हसरतों को दबाके ॥

हर गिरते हुए तारे से, ख़ुशी तेरी ही मांगता हूँ ।
पागल मन अब भी रोता है, बस जी रहा हूँ हसरतों को दबाके ॥ 

शहर की गलियां खाली है, मकानों से कोई आवाज नहीं आती ।
शायद मैं सूनेपन के आगोश में हूँ, बस जी रहा हूँ हसरतों को दबाके ॥

कोई दूर बाग़ में बैठ चहकता है, तो किलकारियाँ मेरी निकलती है ।
सावन में भींगा मौसम नीरस, बस जी रहा हूँ हसरतों को दबाके ॥

अब कोई स्वप्न ना देंखू कभी, नींद को ठुकरा रहा हूँ मैं ।
पर दिन के उजाले में भी स्वप्न है, बस जी रहा हूँ हसरतों को दबाके ॥

गुजरती हवा पास से मेरे, मेरा अंग अंग दुखाती है ।
'आज़ाद' ये प्यार है क्या आखिर? बस जी रहा हूँ हसरतों को दबाके ॥ 

तू समझती क्यों नहीं ?


कहीं तुझे याद करते करते, अपनी जान ना दे दूँ मैं ।
तुझसे प्यार हो गया है मुझे, तू समझती क्यों नहीं ?

और भी है इंसान जहाँ में, तूने आसानी से कह दिया ।
पर उनके लिए आँसू नहीं आँखों में, तू समझती क्यों नहीं ?

माना तेरी मंजिले अलग है, मेरे रास्ते भी जुदा है ।
दूर रहकर तो प्यार और भी बढ़ता है, तू समझती क्यों नहीं ?

जिंदगी का पहला अहसास, इसने मुझे बहुत सताया है ।
ये दर्दमयी तड़फ काटती है मुझे, तू समझती क्यों नहीं ?

मेरी हर सांस में तेरी याद है, इसको कैसे हटाऊँ मैं ?
तेरी याद रोकूँ या अपनी साँस, तू समझती क्यों नहीं ?

ये जिस्म की नुमाइश नहीं है, ये प्यार का घर बना है ।
'आज़ाद' बस तुझमें खो गया है, तू समझती क्यों नहीं ?