Sunday, August 5, 2012

मैं...

आज फिर अन्जानी  राहों पर, किसको तलाश रहा हूँ मैं?
कोई था क्या मेरा! जिसको तलाश रहा हूँ मैं?
जिन्दगी वक्त के साथ, वक्त में धंसती चली गयी,
कब कौन बिछड़ा था? उस पल को तलाश रहा हूँ मैं।।

अँधेरे के साये में, चाँद को तलाश रहा हूँ मैं,
जीवन के आइने में, जाने किसको निहार रहा हूँ मैं?
ख्वाबों के इस दरबार में, क्यों झाँख रहा हूँ मैं?
सावन के इस मौसम में, बसंत तलाश रहा हूँ मैं।।

धरती पर खड़ा हूँ, आकाश क्यों निहार रहा हूँ मैं?
फूलों के उपवन में, किस खुशबू को तलाश रहा हूँ मैं?
रोती हर दिशाओं में, क्यों आग तलाश रहा हूँ मैं?
कुरुक्षेत्र से जंगम में, सारथी तलाश रहा हूँ मैं।।

शराब के मंजर में, शबाब तलाश रहा हूँ मैं,
चंद शब्दों के आहात में, खून बहा रहा हूँ मैं,
जो थम ना सके बर्षों तक, उस अंदाज में,
तकरार से अपनी, तस्वीर बदल रहा हूँ मैं।।

नयनों के अंशुओं में, रक्त तलाश रहा हूँ मैं,
हर अभोगिन बचपन को, उजाड़ रहा हूँ मैं।
हर याद को दर्दमय, बनाता जा रहा हूँ मैं,
अपनों की ही इज्जत को, नीलाम कर रहा हूँ मैं।।

हर एक कली में, खौफ बन गया हूँ मैं,
हर एक विधवा का, कोप बन  गया हूँ मैं।
'आज़ाद ' निर्वस्त निर्लज्ज, निडर घूम रहा हूँ मैं,
बिन पाषण  धूल से, पर्वत बना रहा हूँ मैं।।  

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