Saturday, January 14, 2012

व्याकुलता

बंद कोहरे की चादर में,
घने पत्तों की ओट में |
क्षितिज के उस पार,
कड़कडाती बिजली के आवेश में,
एक धीमी सी आवाज सुनाई देती है|
शायद निर्लज्ज वाटिका उसे दुःख देती है||
खाली पड़े बंद पटो के अन्दर|
उमंग बल खाती हुई |
बहकती हुई चहकती हुई|
सूनेपन से तड़पती हुई||
अधखुले अधरों से लय में,
जीवंत स्वप्नों को ताक पे रख,
गाती है करुण हृदय बन|
दीपक की लौ को निहारती हुई,
हराती है उसे अपने तेज से|
हाथो को बंद कर लौ के ऊपर,
जलती है इत्मिनान से||
शायद तपने के गुबार से||
लौ को हराने की चाह में|
नरभक्षी बाघिन की राह पे||
कभी चलती है कभी रूकती है|
यौवन की लू जो चलती है||
संभलना उसे आता नहीं|
रुकना उसे भाता नहीं,
हर दिशा में कदम बढते है||
शायद पूस की कपकपाती सर्द,
जगने को मजबूर कर रही है|
उसके व्याकुल यौवन को,
पीड़ा में धकेल रही है||
वो हंसती है और रोती है,
ये तो वक्त के आगोश में
कोई चादर ताने सोता है|
पता नहीं सोता है या सोचता है||
बंद पलको के अन्दर भी,
न सोया न नींद आई|
वो रहस्यमयी चुभन,
आ जा कर पास आई||
बदलती करवटें भी खामोश हो जाती है|
पर उफ़ तक ना करती है||
वो मूक नजाकत भी सजा देती है|
चिल्लाने पे भी सजा मिलती है||
'आज़ाद' वक्त के कदम नहीं रुकते,
तभी तो जिन्दगी, कभी सजा तो कभी मजा लगती है||      

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