Thursday, April 23, 2020

आधुनिकीकरण

आज हम ऐसे जमाने में रहते है जहाँ हकीकत अलग होती है और कार्यान्वरण अलग होता है | कभी कभी लगता है बड़े लोगों के बीच आ गए है जो इतना लम्बा लम्बा फेंकते है कि समेटने में ही जिंदगी निकल जाये | हमारे आसपास एक आवरण बना हुआ है ऐसे ही व्यर्थ के लोगों का | हम इसको दिखावा बोल सकते है | दिखावा भी एक परिधि में होना चाहिए अन्यथा वो खतरनाक साबित हो जाता है |
विज्ञान ने जिंदगी को बहुत आसान कर दिया है | घर बैठे बैठे ही पूरी दुनिया की सैर हो जाती है | अब लगता ही नहीं कि अपनों से दूर है | समाजसेवी चिल्ला रहे है कि पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है, पेड़ मत काटिये, पीने वाला पानी ख़त्म होता जा रहा है, फिजूलखर्ची मत कीजिये, नई नई बीमारियां बढ़ती जा रही है, गंदगी मत कीजिये | लेकिन बंद घरों तक वो आवाज नहीं पहुंच पा रही है | तापमान को अपने हिसाब से नियंत्रण कर सकते है | पानी को पीने योग्य बनाना लगता है चुटकी का काम हो गया है | बीमारियों से लड़ने के लिए हमारे पास पैसा है | आज भी बगल से, अँधेरे में, कूड़े फेंकने की आवाज आती है | परन्तु ये सब धारणायें ही है हम प्रकृति को बाध्य नहीं कर सकते | सब जानते है प्रकृति अपना हिसाब करना जानती है |
आज थोड़ी धूप के लिए छाता चाहिए होता है | थोड़ी दूरी के लिए गाड़ी चाहिए होती है | थोड़ी बीमारी के लिए चिकित्सक चाहिए | इसी तरह का आधुनिकीकरण बहुत तेजी के साथ हो चुका है | एक होड़ सी मची है बड़े बड़े महल बनाने की | वातानुकूलित में रहने की | शहर के करीब रहने की | और ताजुब्ब होता है जब हम उम्मीद करते है अच्छी हवा की, अच्छे पानी की | शहर के हर घर, गली का पक्का हो जाना, शहरों का बड़ा हो जाना, तरस जाते है चुटकी मिट्टी के लिए, पँछियों की चहचाहट के लिए, ऊब जाते है धूल खाती जिंदगी से |
हम अपनी सहूलियत के लिए क्या क्या नहीं कर रहे परन्तु पर्यांवरण पर हम सिर्फ ज्ञान बाँट सकते है | पेड़ों  को काट काट कर महल बना सकते है | नदी, नालों में दूषित पानी को जाने से नहीं रोक सकते, जंगलों में आग लगाना या लगना, एक परंपरा हो गई है |  ऐसे ऐसे परीक्षण करेंगे कि मानवता ही खतरे में आ जाये | आखिर मानवता पर तो ज्ञान लेना या देना ही अच्छा है |  मैं की भावना घर कर गई है तभी तो प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है |  दस्तावेजों में ही चीजों को अच्छा दिखाया जाता है परन्तु हकीकत में, हालात अच्छे नहीं है |  पर्यावरण के लिए पैसा पानी की तरह बहाया जाता है या शहरों के चौराहों पर बड़े बड़े विज्ञापनों पर दिखाया जाता है पर हम, हमारा समाज, हमारा तंत्र कोई वास्तविकता में कुछ नहीं कर रहा | 
विज्ञान में हम बहुत आगे बढ़ चुके है यहाँ तक की पृथ्वी के बाहर भी जा चुके है परन्तु हम उस विज्ञान को पर्यावरण मैत्री  क्यों नहीं बना रहे या फिर बनाना ही नहीं चाहते ? विज्ञान प्रदूषण रहित गाड़ियाँ  क्यों नहीं बना पा रहा ? पृथ्वी का बड़ा भूभाग समुद्र से घिरा है उसके पानी को पीने योग्य क्यों नहीं बनाया जा रहा ? लोगों के दिमाग में ये क्यों आ गया है कि शहर की जिंदगी ज्यादा सुरक्षित, संसाधनों से युक्त है ? जो चीजें प्रकृति या इंसानों के लिए अच्छी नहीं है उनका प्रतिस्थापन क्या है या क्यों नहीं बन पा रहा है ? हम इस धरा को खुद ख़त्म करना चाहते है ?       

Friday, April 17, 2020

मतलब की दुनिया

ब्यार बही मन उड़ा, काफ़िर अब क्यूँ रोता है ?
निर्लज्ज, नालायक मन, क्यूँ उसमें खोता है ?

सारे रिश्ते उसने भुला दिये, पता नहीं क्यूँ ?
क्यूँ आँखों में भर नींद उनकी, स्वप्नों में सोता है ?

चाह क्या है मेरी, उनको इससे क्या लेना |
पलकों पे सजा चाह उनकी, बस वोही तो होता है ||

तेरे इरादे ना समझा, पर मेरे इरादे तू समझ गई |
मुकर गई हर बात से, क्या तू स्वार्थ का झरोटा है ?

दिल तोडा तूने, दर्द हुआ, उस ग़म को तू क्या जानेगी ?
'आज़ाद' प्यार ना दुनिया में, मतलब में सब होता है ||

Wednesday, April 15, 2020

तेरी ख़ामोशी

तेरी ख़ामोशी मुझे, बहुत परेशान करती है |
झूठ ही कह दे, कि तू मुझसे प्यार करती है ||

मुस्कराने का तमाशा, अब ना होगा मुझसे |
ये बिचारी दुनिया, जो मुझे बिंदास समझती है ||

ये तू ही है, जो मुझे बदल रही है |
वरना जिंदगी अपनी तो, सूनेपन में ही रहती है ||

तूने देखा ना कभी, तूने पहचाना ना कभी |
मेरी नज़रों में बस तू ही, तू ही तू दिखती है ||

फांसले बहुत है, कैसे कहूँ तुझे दिल की बात|
'आज़ाद' बस समझ ले तू, मेरी सांस तुझसे ही बहती है ||  

Monday, April 6, 2020

ये रात

चाँद भी निकला है, तारे भी हंस रहे है |
इस शांत रात में, हम क्यूँ तड़फ रहे है ?
हम थे ही अकेले, इससे दुःख क्यूँ हुआ ?
हर आहत अपनी है, अँगारे हृदय में जल रहे है ||

आज की ये रात, बढ़ती ही जा रही है | 
गैरों के लिए जिंदगी, ढ़लती ही जा रही है ||
छिपाते है ख्वाब तो, ये दिल जल  उढ़ता है |
बताने पर हर ख़ुशी, मरती ही जा रही है ||

विस्तृत चाँद के प्रकाश में, मधुर ब्यार बहती है |
जब छूकर निकलती है, हर दर्द बयाँ करती है ||
नहीं ये दर्द नहीं है, मेरे प्रियतम के हृदय का |
कह दो झूठ बोला, वो अब भी प्यार करती है ||

ये रात बड़ी शांत है, जरा खुद को समझ लू मैं |
कोई नहीं यहां मेरा, क्यूँ न अब समझ लू मैं ||
बिसरा दिया जगत ने, क्यूँ किसको याद रखूँ |
हकीकत से था दूर, सच्चाई को समझ लू मैं ||

ऐ रात! ढल ना अब, मैं विरह का सताया हूँ |
सुमधुर मिलन की आस, आतप को ही पाया हूँ ||
उम्मीद की थी उनसे, अनगिनित गम ही मिले |
'आज़ाद' न चाह सुबह की, जिंदगी से ही खफा हूँ || 

Sunday, April 5, 2020

सरकारी तंत्र

जब भी सरकारी तंत्र का नाम जुबान पर आता है तो ये धारणा पहले ही मस्तिष्क में आ जाती है की सरकारी तंत्र मतलब निकम्मा, आलसी, बद्तमीज और काम ना करने वाला तंत्र | जोकि जनता के पैसों से ऐश करता है और जनता का ही काम नहीं करता |  बाबू गिरी वाला तंत्र | अपने मन के मालिक ही सरकारी तंत्र के नौकर होते है |
बहुत घृणा भरी है जनता के मन में इस तंत्र को लेके, और क्यों हो भी न, क्यूंकि उनको इस तंत्र से परेशानी होती है |  काम भी इसी तंत्र से पड़ता है और बार बार पड़ता है | बार बार बाबूजी बोलना पड़ता है | घंटों बाबूजी को बर्दास्त करना पड़ता है |
लोग गुस्से में बोलते है की प्राइवेट तंत्र ज्यादा अच्छा होता है क्यूंकि वो इज्जत के साथ पेश आते है और सर सर भी बोलते है बार बार | ये आपके बुलाने पर आपके घर तक भी आ सकते है |
परन्तु, जनता हमेशा प्रयास करती है सरकारी तंत्र का हिस्सा बनने के लिए, ये एक गौर करने वाली बात है | इसका मतलब क्या है ? जब हमको पता है कि सरकारी तंत्र अच्छा नहीं है फिर भी उसी तंत्र में आने के लिए मेहनत की जाती है |
भारत जैसे देश में ज्यादातर प्राइवेट तंत्र का मतलब होता है शोषण | और वहां काम करने वाले, कम्पनी के मालिक के नौकर होते है | जो अपना रोजगार बचाने के लिए उन्ही के आगे पीछे घूमते रहते है | इसका एक कारण ये भी हो सकता है है कि भारत जैसे देश में जनसंख्या ज्यादा होने के साथ साथ रोजगार के काफी कम श्रोत है | गरीबी भी इसका एक कारण हो सकती है | मानवता नाम की चीज बहुत कम बची हुई है और कर्मचारी के लिए कोई अधिकार नहीं होते, उनको जब चाहे कंपनी से निकाल सकते है | उनको जितना चाहे वेतन दे सकते है परन्तु उन्हें इसके खिलाफ बोलने का अधिकार भी नहीं है | अगर वो इतना दुस्साहस करते है तो उन्हें प्रताड़ित किया जाता है | नौकर को ज्यादा घंटे काम करने के लिए मजबूर कर सकते है | इसके अलावा छुटियाँ भी अपने हिसाब से तय कर सकते है | कर्मचारी पूरी तरह से बेबस होता है काम करने के लिए |
सरकारी तंत्र में ये सब नहीं होता है | वहां आप अपने से ऊपर वाले अधिकारी की बात में भी तर्क वितर्क कर सकते है | आपके वेतन में कोई सौदेबाजी नहीं होगी | आपके लिए छुटियाँ निर्धारित है | आपके काम करने के घंटे भी निर्धारित है | आप अपनी जिंदगी ज्यादा अच्छे से जी सकते है | आपको किसी की भी जी हजूरी करने की जरुरत नहीं है | आपको रोजगार से निकालना तो बहुत ही कम मामलों में होता है | वो भी तब जब मामला बहुत गंभीर हो | आप दिमागी तरीके से आजाद रहते हो |
अब सवाल यह है कि इतना अच्छा सुविधा देने वाला तंत्र बदनाम क्यों है ? इसके पीछे कहीं सरकार ही तो नहीं है | सरकारी तंत्र पर इतना भार होता है कम से कम संसाधनों से  तंत्र को चलाना होता है | जितना पैसा तंत्र पर खर्च किया जाना चाहिए उतना नहीं हो पाता है | रिक्तियों को सरकार भरना नहीं चाहती है | सरकारी तंत्र में भी चापलूसी वाला माहौल प्रारम्भ हो चुका है | अगर आप अपने से ऊँचे पद पर बैठे कर्मचारी की चापलूसी करोगे तो आपकी पदोन्नति जल्दी से जल्दी हो जाएगी |  इससे इस तंत्र के कर्मचारियों में विरोधाभाव पनप जाता है और वो एक दूसरे के खिलाफ ही लड़ने लगते है |  वो हमेशा चालबाजियों को सीखने में लग जाते है |  वो एक दूसरे से बात करना तो दूर एक दूसरे को देखना भी नहीं चाहते, जबकि वो एक ही तंत्र का हिस्सा होते है | ये सरकारी तंत्र को ख़त्म करने का सबसे अच्छा तरीका है | ऊपर बैठे लोग सरकार के इशारों से काम करते है | फिर किसको परवाह जनता की क्यूंकि उनके ऊपर तो चापलूसी वाला हाथ होता है | ये विडंबना ही है जो सरकार जनता के लिए होती है है वो ही जनता के इस तंत्र को उन्ही के सामने इस्तेमाल करती है, उसको नष्ट कर देना चाहती है | मतलब सरकारे जनता का भला नहीं चाहती |